सात्विक दान
एक विवेकशील प्राणी होने के नाते मनुष्य ने त्याग की अपेक्षा स्वभाविक है ।वास्तव में मानव का पूर्ण विकास ही त्याग द्वारा संभव है ।जो दूसरों के लिए जितना अधिक त्याग कर सकता है, वह उतना ही महान समझा जाता है राजा हरिश्चंद्र को हम आज उनके त्याग के लिए ही तो स्मरण करते हैं । महर्षि दधीचि ने तो अपना सही सी त्याग दिया था। वास्तव में हमारे समृद्धि इतिहास में कई विभुतिया तो केवल अपने त्याग की भावना के लिए विख्यात हैं।
त्याग की भावना का विकास करने के लिए सभी धर्मों में दान की महिमा बताई गई है कहा जाता है कि धन का दान करने से धन शुद्ध होता है ।आवश्यक नहीं कि मात्र धनी व्यक्ति ही दान दान में सक्षम हैं, क्योंकि उनके पास किसी वस्तु का अभाव नहीं है। दान की भावना जागृत होने पर आप पाएंगे कि आपके पास भी अच्छा भंडार है। मात्र धन धान्य अन्न दान ही दान नहीं है। हो सकता है कोई व्यक्ति धनहीन हो परंतु उसके पास एक स्वस्थ और निरोग सही हो क्या ऐसे लोगों के लिए संविधान विकल्प नहीं है ? के आसपास कितने असत्य लोग मिल जाएंगे जिनकी वे अपनी शारीरिक ऊर्जा से सेवा करते हैं किसी के कार्य में हाथ बटा लेना भी श्रमदान विद्या ज्ञान का ज्ञान दान को तो उत्तम सर्वोत्तम माना गया है किसी निर्धन बच्चे को निशुल्क पढ़ा देना भी तो दान ही है आप किसी भी प्रकार के किसी अभावग्रस्त की सहायता कर रहे हैं शरीर मन बुद्धि थन और भाव सब उपकरण हैं।
परोपकार करने वाले व्यक्ति में अहंकार का भाव कभी नहीं घर करना चाहिए वास्तव में परोपकार दूसरे से अधिक स्वयं पर कार है। दान देने से चित्त शुद्ध होता है। हृदय निर्मल होता है ।उसमें सात्विक भाव का स्फुरण होता है त्याग का अर्थ अनुपयोगी वस्तुओं का दान नहीं है त्याग के लिए आवश्यक सात्विक भाव से उन वस्तुओं का त्याग करना जिनके प्रति हमें मोह है।
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